व्यवस्था की रग-रग में समाई ‘वसूली
राजनीतिक घटक चेतना के किस पायदान पर पहुँच चुके हैं इसका अंदाज़ लेना हो तो देश के शीर्षस्थ धर्मगुरू पुरी के शंकराचार्य की बातों पर गौर करना चाहिए. उनका कहना है कि – एक करोड़ कैकेयी सी कठोरता जब आती है तब जाकर कोई राजनेता बनता है. बात इसलिए गंभीर है, कि ये कठोरता और कर्कशता यहीं खत्म नहीं होती, उनकी पीढ़ियों की रगों में, और उनकी देखा-देखी व्यवस्था में ऊपर-मध्यम-निचले सभी दर्जों में उतर आती है. अभी चिंता ऊपर के पायदानों के मुकाबले निचली व्यवस्था की ज़्यादा है, जिससे जूझ सब रहे हैं पर खुलकर कोई नहीं बोल रहा.
भारत अभी जिस दिशा में बढ़ रहा है, वो हिमालय सी ऊंचाई है जो वैश्विक मायने में आश्वस्त करती है. लेकिन अमेरिका के सिरफिरेपन के बीच, जो ‘स्वदेशी जागरण’ हमारे अस्तित्व की धुरी बनेगा, उसके रास्ते की सबसे बड़ी अड़चन है ‘बाबूगिरी’ और ‘भ्रष्टाचार’. देश का चरित्र महान बने बग़ैर, देश महान बनाने का जादुई मंत्र, किसी महासत्ता के पास नहीं.
बांग्लादेश के बाद, ‘हिन्दू राष्ट्र’ का गौरव पाले नेपाल में जो घटित हुआ है, उसमें कई सुलगते सवाल हैं. निरंकुश शासन के इस अंत का किसी को मलाल नहीं. लेकिन, बेकाबू हुए इन देशों में, बड़े घरों और बंगलों में आम नागरिकों ने जो लूटपाट की, उसकी बानगी दुनिया ने देखी. विकल्प के तौर पर फिर से ‘राजशाही’ की आस, सच्चे प्रजातंत्र के लिए तरस रहे देश की मजबूरी हो सकती है, लेकिन उसे अपनी गिरेबान में भी झाँकना होगा.
‘जेन ज़ी’ अपने-अपने देशों में सत्ताओं के रवैये से विकल भले हों लेकिन ऐसे अराजक कभी न हों, ये पूरे विश्व के लिए ज़रूरी है. ऐसे हालात भारत में पैदा ही न हों इस पर भी प्रभावशाली व्यक्तियों-समूहों की वैचारिक दखल होनी चाहिए. और भड़काऊ बयानों से नेताओं को बाज़ आना चाहिए.





